इस्लाम के दो बहुत अहम त्योहार हैं। ये दोनों ईद हैं। ईद अरबी शब्द है, जिसका मतलब है खुशी। सो इन दोनों ही त्योहारों से खुशी जुड़ी हुई है। ईदुल फित्र से रोजे और फित्र की खुशी और ईदुज्जुहा से कुर्बानी और हज की। ईदुल अजहा इस्लामी कैलेंडर के आखिरी महीने की दस तारीख को मनाई जाती है। बकरीद की अहमियत सिर्फ कुर्बानी से नहीं है, बल्कि हज से भी है। हज हर मुसलमान पर फर्ज है और जैसा कि हम सब जानते हैं कि हज का संबंध काबा की जियारत (दर्शन) करने और उन इबादतों को एक खास तरीके से अदा करने से है। हज के लिए खास लिबास पहना जाता है, जिसे एहराम कहते हैं। गौर कीजिए, यह एक फकीराना लिबास है। ऐसा लिबास, जो हर तरह के भेदभाव को मिटा देता है। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, गोरे-काले और राजा-रंक का। सबका एक ही लिबास, सबकी बस एक ही जबान- अल्लाह की प्रशंसा। काबा में जियारत करने के बाद एहराम को उतार दिया जाता है। उमरा या हज करते समय इसे फिर पहना जाता है। हज में तीन बातें फर्ज हैं और अगर वे टूट जाएं, तो हज न होगा। हज का पूरा तरीका यह है कि पहले काबा की परिक्रमा यानी ‘तवाफे वुकूफ’ करते हैं। हजरे असवाद (काला पत्थर) को चूमते हैं, फिर सफा और मरवा, दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ते हैं। 8 जिलहिज्जा, यानी इस्लामी कैलेंडर के आखिरी महीने की आठ तारीख को फज्र की नमाज पढ़कर मिना चल देते हैं, रात को मिना में रहते हैं। 9 जिलहिज्जा को गुस्ल (स्नान) करके अराफात के मैदान की तरफ रवाना होते हैं और वहां कुर्बानी की जाती है।
मैंने बचपन में अपनी दादी से हज के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। मेरी भी तमन्ना होती थी हज पर जाने की, आखिरकार वह तमन्ना पूरी हुई और पहली बार मैं अपने शौहर के साथ और दूसरी बार अपनी बेटी के साथ हज करने गई। उमरा पर जाने का मौका तो कई बार मिला।
हमारे परिवार में सभी को लगभग एक बार हज करने का मौका जरूर मिला है। हज के दौरान ऐसा कपड़ा पहना जाता है, जिससे एक मक्खी भी न मरे। लेकिन लोग हज के दौरान जब काबा का तवाफ करते हैं, तब एक-दूसरे से धक्का-मुक्की करने लगते हैं। यह बहुत ही गलत है। हज पर जाने से पहले के कुछ फराएज है। सिर्फ आपके पास पैसा आ गया और दिखावे के लिए हज पर निकल पड़े। पहले जरूरी है अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति। जैसे बच्चों की शादी, उसकी पढ़ाई यानी हर तरह की दुनियावी जिम्मेदारी पूरी करने के बाद जब आपके पास पैसे बचते हैं, तो आप हज पर जरूर निकलें। हज इस्लाम के पांच बुनियादी स्तंभों में से एक है। यह अनिवार्य इबादत है, जो उन तमाम मुसलमानों पर फर्ज है, जो इसकी हैसियत रखते हैं, बशर्तें वे बीमार न हों।
अगर कुर्बानी की बात की जाए, तो मैं कुर्बानी नहीं करती। सिर्फ गोश्त बांटने, और खाने-खिलाने का नाम नहीं है कुर्बानी। आजकल देखने में आ रहा है कि इसमें झूठी शान और दिखावा ज्यादा शामिल हो गया है- लोग 15-20 हजार से लेकर लाख-दो लाख का बकरा खरीदकर नुमाइश करते हैं। इस दिखावे से कुर्बानी का कोई ताल्लुक नहीं है। कुर्बानी अपनी शेखी बघारने के लिए न की जाए, बल्कि इसे अल्लाह की इबादत समझकर करना ही मुनासिब है। यह बलिदान का त्योहार है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में कुर्बान करें। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से है। मेरी जितनी औकात है, उस हिसाब से कुर्बानी के पैसे निकालती हूं और गरीबों में बांट देती हूं। मेरा मानना है कि जितने का बकरा या दूसरे जानवर की कुर्बानी आप करना चाहते हैं या कुर्बानी करके अपना पेट भरना चाहते हैं या दोस्त अहबाब का, उतने पैसे की मदद अगर किसी गरीब या जरूरतमंद की कर दी जाए, तो कितना मुनासिब होगा! अल्लाह आपकी नीयत देखता है। इस्लाम में कोई भी चीज अकल के ऊपर नहीं है।
खुदा रब्बुल आलमीन है, रब्बुल मुसलमीन नहीं, यानी वह समूचे ब्रह्मांड का मालिक है। कोई भी चीज आखिर हम क्यों मना रहे हैं? अपने मजहब को सही मायने में सोचें, समझें और फिर अमल में लाएं। हम अपनी जिम्मेदारियों को समझें। हमारी जिम्मेदारी है जकात देना, खैरात देना। जिस मुल्क में हम रहते हैं, उसकी तरक्की के लिए जी-जान से जुटना, हम समाज के लिए और अपने-पराये के लिए क्या-कुछ बेहतर करते है, यह बेहद जरूरी है और यही है अल्लाह का हुक्म। कुर्बानी का पर्व असल में एक यादगार घटना से जुड़ा हुआ है। यह घटना है रब्बे-कायनात के आगे समर्पण, उसकी मोहब्बत में अपना सब कुछ कुर्बान कर देना, जो हजरत इब्राहीम अलैय सलाम ने किया। हजरत इब्राहीम अलैय सलाम को ख्वाब में अल्लाह का हुक्म हुआ कि वह अपनी प्यारी चीज को अल्लाह के लिए कुर्बान करें और अपने प्यारे बेटे इस्माईल (जो बाद में पैगंबर हुए) को अल्लाह की राह में कुर्बान करें। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे के प्रति मोहब्बत और दूसरी तरफ था अल्लाह का हुक्म।
अल्लाह रहीमो करीम हैं और दिल का हाल जानते हैं, जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम ने छुरी अपने बेटे की गर्दन पर रखी, वहां एक दुंबा जिबह हो गया। इस तरह, उनकी कुर्बानी कबूल हो गई। लेकिन आज लोगों में दिखावा और तकब्बुर (घमंड) आ गया है। मैं फिर कहूंगी कि सिर्फ गोश्त बांटने और खाने-खिलाने का नाम नहीं है कुर्बानी, बकरीद या ईदुज्जुहा। यह दिन हजरत इब्राहीम की कुर्बानियों की याद में दी जाने वाली कुर्बानी का दिन है। कुल मिलाकर, हमारे जितने भी फेस्टिवल या त्योहार हैं, इनका मकसद सिर्फ एक है, और वह है अपने नब्ज पर काबू रखना। चाहे वह मुबारक रमजान का महीना हो, ईदुल फित्र हो या ईदुज्जुहा। ये त्योहार हमें बुराई से बचने की सीख देते हैं। वैसे तो हर दिन इबादत का दिन है। लेकिन इस एक दिन को खुशी-खुशी मनाएं और खुदा को याद करें।
मैंने बचपन में अपनी दादी से हज के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। मेरी भी तमन्ना होती थी हज पर जाने की, आखिरकार वह तमन्ना पूरी हुई और पहली बार मैं अपने शौहर के साथ और दूसरी बार अपनी बेटी के साथ हज करने गई। उमरा पर जाने का मौका तो कई बार मिला।
हमारे परिवार में सभी को लगभग एक बार हज करने का मौका जरूर मिला है। हज के दौरान ऐसा कपड़ा पहना जाता है, जिससे एक मक्खी भी न मरे। लेकिन लोग हज के दौरान जब काबा का तवाफ करते हैं, तब एक-दूसरे से धक्का-मुक्की करने लगते हैं। यह बहुत ही गलत है। हज पर जाने से पहले के कुछ फराएज है। सिर्फ आपके पास पैसा आ गया और दिखावे के लिए हज पर निकल पड़े। पहले जरूरी है अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति। जैसे बच्चों की शादी, उसकी पढ़ाई यानी हर तरह की दुनियावी जिम्मेदारी पूरी करने के बाद जब आपके पास पैसे बचते हैं, तो आप हज पर जरूर निकलें। हज इस्लाम के पांच बुनियादी स्तंभों में से एक है। यह अनिवार्य इबादत है, जो उन तमाम मुसलमानों पर फर्ज है, जो इसकी हैसियत रखते हैं, बशर्तें वे बीमार न हों।
अगर कुर्बानी की बात की जाए, तो मैं कुर्बानी नहीं करती। सिर्फ गोश्त बांटने, और खाने-खिलाने का नाम नहीं है कुर्बानी। आजकल देखने में आ रहा है कि इसमें झूठी शान और दिखावा ज्यादा शामिल हो गया है- लोग 15-20 हजार से लेकर लाख-दो लाख का बकरा खरीदकर नुमाइश करते हैं। इस दिखावे से कुर्बानी का कोई ताल्लुक नहीं है। कुर्बानी अपनी शेखी बघारने के लिए न की जाए, बल्कि इसे अल्लाह की इबादत समझकर करना ही मुनासिब है। यह बलिदान का त्योहार है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में कुर्बान करें। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से है। मेरी जितनी औकात है, उस हिसाब से कुर्बानी के पैसे निकालती हूं और गरीबों में बांट देती हूं। मेरा मानना है कि जितने का बकरा या दूसरे जानवर की कुर्बानी आप करना चाहते हैं या कुर्बानी करके अपना पेट भरना चाहते हैं या दोस्त अहबाब का, उतने पैसे की मदद अगर किसी गरीब या जरूरतमंद की कर दी जाए, तो कितना मुनासिब होगा! अल्लाह आपकी नीयत देखता है। इस्लाम में कोई भी चीज अकल के ऊपर नहीं है।
खुदा रब्बुल आलमीन है, रब्बुल मुसलमीन नहीं, यानी वह समूचे ब्रह्मांड का मालिक है। कोई भी चीज आखिर हम क्यों मना रहे हैं? अपने मजहब को सही मायने में सोचें, समझें और फिर अमल में लाएं। हम अपनी जिम्मेदारियों को समझें। हमारी जिम्मेदारी है जकात देना, खैरात देना। जिस मुल्क में हम रहते हैं, उसकी तरक्की के लिए जी-जान से जुटना, हम समाज के लिए और अपने-पराये के लिए क्या-कुछ बेहतर करते है, यह बेहद जरूरी है और यही है अल्लाह का हुक्म। कुर्बानी का पर्व असल में एक यादगार घटना से जुड़ा हुआ है। यह घटना है रब्बे-कायनात के आगे समर्पण, उसकी मोहब्बत में अपना सब कुछ कुर्बान कर देना, जो हजरत इब्राहीम अलैय सलाम ने किया। हजरत इब्राहीम अलैय सलाम को ख्वाब में अल्लाह का हुक्म हुआ कि वह अपनी प्यारी चीज को अल्लाह के लिए कुर्बान करें और अपने प्यारे बेटे इस्माईल (जो बाद में पैगंबर हुए) को अल्लाह की राह में कुर्बान करें। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे के प्रति मोहब्बत और दूसरी तरफ था अल्लाह का हुक्म।
अल्लाह रहीमो करीम हैं और दिल का हाल जानते हैं, जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम ने छुरी अपने बेटे की गर्दन पर रखी, वहां एक दुंबा जिबह हो गया। इस तरह, उनकी कुर्बानी कबूल हो गई। लेकिन आज लोगों में दिखावा और तकब्बुर (घमंड) आ गया है। मैं फिर कहूंगी कि सिर्फ गोश्त बांटने और खाने-खिलाने का नाम नहीं है कुर्बानी, बकरीद या ईदुज्जुहा। यह दिन हजरत इब्राहीम की कुर्बानियों की याद में दी जाने वाली कुर्बानी का दिन है। कुल मिलाकर, हमारे जितने भी फेस्टिवल या त्योहार हैं, इनका मकसद सिर्फ एक है, और वह है अपने नब्ज पर काबू रखना। चाहे वह मुबारक रमजान का महीना हो, ईदुल फित्र हो या ईदुज्जुहा। ये त्योहार हमें बुराई से बचने की सीख देते हैं। वैसे तो हर दिन इबादत का दिन है। लेकिन इस एक दिन को खुशी-खुशी मनाएं और खुदा को याद करें।
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